"कश्मकश"
जाने क्यूँ ये दर्द, मीठा-मीठा -सा लगता है,,,
हर ज़ख्म पर कोई, मिश्री घोल रहा हो जैसे,,,,
अपने ही आंसुओं पर, दरिया बन गई है ये आँखें,,,,
हर नज़र में कोई शख्स,शबनम टटोल रहा हो जैसे,,,
अपनों का कारवां अपनी ही नब्ज़ में शूल सा लगता है,,,
कतरा कतरा यूँ घुट-घुटकर खुदी को ज़ार-ज़ार कर रहा हो जैसे,,,,
ऐ जहां वालों अब तो विराना ही अपना ताजमहल लगता है,,,,
शीशों के घरोंदो में दम साँसों का,बार-बार लुट रहा हो जैसे ,,,,,,,,,,,अरुण"अज्ञात"
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