Saturday, 14 April 2012

दर्द का बाज़ार है,ज़ख्मो का व्यापार है



दर्द का बाज़ार है ,ज़ख्मो का व्यापार है
बहते खून पसीने का मोल क्या यहाँ ?
शराबों में डूबा हुआ गुले गुलजार है |
रखैलों ने इज्जत का जिम्मा उठाया है देखो
भरी महफिलों में तन-बदन लुटाया है देखो|
धर्मो की धज्जियां उड़ा रहे है पाखंडी
और रंडी के मजे ले रहे है शाणे शिखंडी
गरीबों को ना मिरिंडा मिल रहा है ना हंडी
और बड़े भाव खा रही है भारतीय मण्डी
लावारिस,लावारिस ही भटक रहा है
देश का संविधान जाने कहाँ लटक रहा है
खुलेआम आतंकवाद की हो रही अय्याशी है
और भ्रस्टाचारी हाथों-हाथ हेरा फेरी गटक रहा है |
बस्ती-बस्ती,हस्ती-हस्ती यही नोटंकी यही नाटक है
ना खिड़की ना दरवाजा और ना कोई फाटक है
अपराधियों की चौपालों पे चल रही बैठक है |
घर का भेदी लंका ढहा रहा है
ना सोने का हार ना फांसी का फंदा समझ आ रहा है
छाछ मक्खन पडोसी का कुत्ता खा रहा है
घर का उल्लू बाहर ताक झाँक रहा है |
विषयों में वीकट घिरा हुआ है युवा
महिलाओं पे दिन दहाड़े हो रहा धावा
जानते हुए भी अनजान बनते है वो
जो चाट चाटकर खा रहे है मलाई मावा !
          













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